मेरठ में बनी क्रिकेट बॉल की इंटरनेशनल लेवल पर बढ़ी डिमांड

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट प्रतियोगिताओं में भी होता है मेरठ की बॉल का उपयोग

 
cricket ball

मेरठ। उत्तर प्रदेश के मेरठ की स्पोर्ट्स इंडस्ट्री के रूप में पहचान होती है। यहां की स्पोर्ट्स सामग्री देश में ही नहीं, बल्कि विश्व भर में विशेष पहचान रखते हैं। कई विदेशी खिलाड़ी मेरठ के बने बल्ले और गेंद का उपयोग करते हुए दिखते हैं। यही नहीं, 1980 के दशक के बाद बीसीसीआई से मान्यता मिलने के बाद विभिन्न अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट प्रतियोगिताओं में भी मेरठ की बॉल का उपयोग होने लगा है।

आधुनिक दौर में विभिन्न काम आधुनिक मशीनों के माध्यम से किया जाता है। इसमें बॉल और बैट बनाने की विधि की कार्यशैली भी शामिल है, लेकिन मेरठ में चाहे बल्ले की बात हो या फिर गेंद की, कारीगर दोनों को अपने हाथों से फिनिशिंग देने में विश्वास रखते हैं। यहां बॉल की कटाई, छंटाई से लेकर उसकी सिलाई तक हाथों से की जाती है। हालांकि कुछ जगहों पर आधुनिक मशीनें भी हैं मगर फिर भी हाथ कार्य को ज्यादा तवज्जो दी जाती है।

मेरठ की बात करें तो एसजी, एसएस, एसएफ, भल्ला इंटरनेशनल, एचआरएस, बीडीएम क्रिकेट ऐसी प्रमुख कंपनियां हैं। जिनकी यहां ब्रांडेड बॉल तैयार की जाती है, हालांकि सबसे ज्यादा एसजी कंपनी की गेंद विदेशों में भेजी जाती है। मेरठ सूरज कुंड स्पोर्ट्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अनुज कुमार सिंघल ने बताया कि वर्ष 1947 के बाद खेल उद्योग की जो शुरुआत मेरठ में हुई है वो आज पिंक बॉल के सफर को तय कर चुकी है।

उन्होंने कहा कि मेरठ में बनी स्पोर्ट्स सामग्री विश्व भर में प्रसिद्ध हैं, क्योंकि यहां गुणवत्ता पर खासा ध्यान रखा जाता है। यहीं कारण है कि चाहे बात बल्ला खरीदने की हो या फिर बॉल खरीदने की विदेशी खिलाड़ी भी यहीं को ज्यादा तवज्जो देते हैं।

मैदान में जिस बॉल पर सभी खेल प्रेमियों की नजर रहती है कि चौका लगेगा, छक्का या फिर बल्लेबाज आउट होगा। उस बॉल को तैयार करने में कारीगरों को एक सप्ताह का समय लगता है। इस बॉल को तैयार करने में 12 कारीगरों को काम करना पड़ता है। इसको बनाने की प्रक्रिया की बात करें तो पहले लेदर की धुलाई की जाती है, फिर उसे सुखाया जाता है। उसमें लाल कलर किया जाता है। इसके बाद बॉल के साइज के हिसाब से कटिंग की जाती है। कटिंग के बाद एक युवक उस कटिंग की सिलाई करता है। तत्पश्चात उसको बॉल का आकार देने के लिए कुटाई की जाती है। फिर मशीन में जाकर उसको तैयार किया जाता है। आखिर में बॉल को कलर किया जाता है। कलर को सुखाने में एक दिन का समय लगता है। तब जाकर क्रिकेट बॉल बनकर तैयार हो पाती है।

भूपेंद्र सिंह ने बताया कि ओवर के हिसाब से भी बॉल तैयार की जाती है। 20 ओवर, 40 ओवर, 60 ओवर के हिसाब से भी बॉल तैयार की जाती है। सबसे ज्यादा डिमांड लाल रंग की गेंद की होती है। हालांकि यहां पिंक और वाइट बॉल भी बनाई जाती है। वाइट बॉल को दिन-रात के मैच में अधिक उपयोग किया जाता है, क्योंकि ये आसानी से दिख जाती है। बॉल के भार की बात की जाए तो ये 133 से लेकर 163 ग्राम तक का होती है।

दरअसल एसजी कंपनी वर्ष 1931 में सियालकोट में प्रारंभ हुई थी। मशहूर कंपनी एलजी ने 1950 में मेरठ में कारोबार शुरू किया। 1947 के विभाजन में कई परिवार औघड़नाथ मंदिर और सूरजकुंड के पास रिफ्यूजी कैंप में आकर बसे, उसके बाद ये रिफ्यूजी विक्टोरिया पार्क और सूरजकुंड स्पोर्ट्स कॉलोनी में रहने लगे थे।


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